मैं अकेला मैं अकिंचन
Wednesday, December 2, 2009
मैं अकेला मैं अकिंचन
जटिल बंधन में बंधा भी
मुक्ति के मैं गीत गाता
वेदनाएं झेल कर भी
मौन रहता मुस्कराता
यह विवशता है कि नियमन मैं
अकेला मैं अकिंचन
गोल क्षिति कि परिधि
पर चल
क्षितिज पाना चाहता हूँ
और मृग जल से पिपासा
तृप्त करना चाहता हूँ
काम्य का ही सतत चिंतन
मैं अकेला मैं अकिंचन
जल पिया कितना मगर
यह प्यास तो जाती नहीं है
पथ चला कितना मगर
मंजिल नज़र आती नहीं है
सतत संग्रह सतत तर्पण
मैं अकेला मैं अकिंचन
है वही आदर्श जिस तक पहुँच
अपनी हों न पाती
धरा भी रवि के चतुर्दिक
घूमती पर छू न पाती
सतत गति ही जगत जीवन
मैं अकेला मैं अकिंचन
जगन्नाथ त्रिपाठी
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जटिल बंधन में बंधा भी
मुक्ति के मैं गीत गाता
वेदनाएं झेल कर भी
मौन रहता मुस्कराता
यह विवशता है कि नियमन मैं
अकेला मैं अकिंचन
गोल क्षिति कि परिधि
पर चल
क्षितिज पाना चाहता हूँ
और मृग जल से पिपासा
तृप्त करना चाहता हूँ
काम्य का ही सतत चिंतन
मैं अकेला मैं अकिंचन
जल पिया कितना मगर
यह प्यास तो जाती नहीं है
पथ चला कितना मगर
मंजिल नज़र आती नहीं है
सतत संग्रह सतत तर्पण
मैं अकेला मैं अकिंचन
है वही आदर्श जिस तक पहुँच
अपनी हों न पाती
धरा भी रवि के चतुर्दिक
घूमती पर छू न पाती
सतत गति ही जगत जीवन
मैं अकेला मैं अकिंचन
जगन्नाथ त्रिपाठी